जन्म कुंडली

अंको की रहस्यमयी शक्ति | Anka ka rahasya

हम संसार में भिन्न भिन्न वस्तुएँ देखते हैं जिनके रूप अनेक हैं। दो या अनेक रंगों
के मिलने से कुछ नये रंग बन जाते हैं। जैसे पीला और लाल मिलाने से नारंगी रंग बन
जाता है। नीला और पीला मिलाने से हरा। इस प्रकार सैकड़ों, हजारों रंग बन सकते हैं।
परन्तु इनके मूल में तो वही सात रंग हैं जो हमें इन्द्र धनुष में दिखाई देते हैं। इन सात रंगों
को सूर्य के प्रकाश में प्रिज्म द्वारा देखा जा सकता है। वैसे सूर्य की किरण शुद्ध उज्जवल
बिना रंग के प्रतीत होती हैं। इन सात रंगों के मूल में भी एक ही रंग रह जाता है जो कि
सफेद अथवा रंग रहित शुद्ध प्रकाश है।

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पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्व संसार में दिखाई देने वाली प्रत्येक वस्तु
में रहता है। इन तत्वों का मिश्रण भिन्न भिन्न अनुपात और भिन्न भिन्न प्रकार से होता है।
किसी में कोई तत्व कम है तो किसी में अधिक। यह सच है कि समस्त जगत् केवल पांच
तत्वों से बना है। यह पांचो तत्व आकाश से उत्पन्न हुए हैं। आकाश से वायु, वायु से अग्नि,
अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है। आकाश का गुण ‘शब्द’ वायु का ‘स्पर्श’
अग्नि का ‘तेज’ (रूप), जल का ‘रस’ और पृथ्वी का गुण ‘गन्ध’ है। जैसे संसार के सभी
पदार्थों के मूल में आकाश तत्व है उसी प्रकार, हम यह कह सकते हैं कि संसार के सभी
पदार्थो का मूल गुण ‘शब्द’ है। इसी कारण शब्द को ‘शब्द ब्रह्म’ की संज्ञा प्रदान की गई
• है अर्थात् परम प्रभु परमेश्वर का प्रतीक माना गया है।
सभी शब्द ब्रह्म के रूप हैं। लेकिन भिन्न भिन्न शब्दों का गुण और प्रभाव भिन्न भिन्न
है। प्रत्येक शब्द को अंक या संख्या में परिवर्तित कर उसकी माप की जा सकती है। कोई
शब्द 7000 बार आवृत्ति करने पर पूर्णता को प्राप्त होता है तो अन्य शब्द 17000 बार आवृत्ति
करने पर पूर्ण होता है। संख्या एवं शब्द के आपसी सम्बन्ध से हमारे ऋषि महर्षि पूर्ण
परिचित थे। इसी कारण सूर्य के मंत्र का जप 7000, चन्द्रमा का 11000, मंगल का 10000,
बुध का 9000, बृहस्पति का 19000, शुक्र का 16000, शनि का 23000, राहु का 18000 और
केतु का 17000 जप निर्धारित किया गया है। किसी देवता के मंत्र में 5 अक्षर होते हैं तो
किसी के मंत्र में 9 या 22 आदि। अतः ‘शब्द’ एवं संख्या में घनिष्ट वैज्ञानिक संबंध है।

संख्या और क्रिया का घनिष्ठ संबंध है। शून्य (0) सख्या, निष्क्रिय, निराकार
निविकार ‘ब्रह्म’ का द्योतक है और ‘1’ पूर्ण ब्रह्म की उस स्थिति का द्योतक है, जब वह अद्वैत
रूप से रहता है। कहने का अभिप्राय यह कि ‘शब्द’ और संख्या (अक) में संबंध होने के
कारण समस्त पदाथों के मूल में जैसे ‘शब्द’ है वैसे ही ‘अंक’ भी। शब्द के मूल आकाश को
‘शून्य’ कहते हैं और अंक के मूल को भी ‘शून्य’। शून्य से ही शब्द और अंक का प्रादुर्भाव
होता है। यदि ‘अंक’ (सख्या) का किसी वस्तु या क्रिया से संबंध नहीं होता तब हमारे शास्त्र
108 मणियों की माला बनाने का विधान नहीं करते। प्रत्येक सख्या का एक महत्व है। 25
मणियों की माला पर जप करने से मोक्ष, 30 की माला से धन सिद्धि, 27 की माला से स्वार्थ
सिद्धि, 54 से सर्वकामनाप्राप्ति और 108 से सर्व प्रकार की सिद्धियाँ हो सकती है। किन्तु
अभिचार कर्म में 15 मणियों की माला प्रशस्त है।
108 की संख्या का क्या रहस्य है ? सूर्य राशि भ्रमण में जब एक पूरा चक्र लगा लेता
है तो एक वृत्त पूरा करता है। एक वृत्त में 360 अंश होते हैं। इस प्रकार सूर्य की एक प्रदक्षिणा
के अंशों की यदि कला बनाई जावें तो 360 गुणा 60 बराबर 21600 कला बनेंगी। सूर्य छः
मास उत्तर अयन में रहता है और छः मास दक्षिण अयन में। इस हिसाब से 21600 को दो-
भागों में विभक्त करने से 10800 संख्या प्राप्त हुई ।
अब हम दूसरे प्रकार से विचार करते हैं। प्रत्येक दिन में सूर्यादय से लेकर अगले
सूर्योदय तक काल का परिमाण 60 घड़ी माना है। 1 घड़ी के 60 पल और 1 पल के 60
विपल। इस प्रकार एक अहोरात्र अर्थात 60 घड़ी में गुणा 60 पल फिर गुणा 60 विपल बराबर
216000 विपल हुए। इसके आधे दिन में 108000 और इतने ही रात्रि में।

जैसे आधुनिक युग में वैज्ञानिक प्रणाली के अनुसार रुपये, पैसे, तोल, माप, आदि एक
ही दशमलव के आधार पर हैं, वैसे ही हमारे प्राचीन ऋषियों ने ‘काल’ और ‘संख्या’ का
समन्वय किया था। इसी के समीकरण और सामंजस्य स्वरूप 108000 की संख्या उपलब्ध
हुई और दशमलव की प्रणाली के अनुसार बिन्दु छोड़ देने से 108 की संख्या प्राप्त हुई।
हमारे प्राचीन ऋषियों ने ‘शब्द’ काल, संख्या आदि सभी का इस प्रकार सामंजस्य कर दिया
था कि प्रत्येक नाम का, नाम के अक्षरों का संख्या पिंड बनाने से उसके सब गुण उस संख्या
से प्रकट हो जाते थे। इसी आधार पर जय पराजय चक्र आगे दिये गये हैं। ऋणी और
धनी कौन किसका कर्जदार है, अंक विद्या, मंत्र विद्या, आदि से संबंध रखता है, क्योंकि देना।
पावना संख्या में ही होता है। इस संबंध में तंत्रसार को देखें।

आजकल वैज्ञानिक प्रत्येक खाद्य पदार्थ को ‘कैलोरी’ में परिवर्तित कर यह बतलाते
हैं कि किस भोजन में कितना शक्ति वर्धक पदार्थ है। इसी प्रकार किसी नाम को संख्या में
परिवर्तित करके यह बताया जाता है कि किस नाम का व्यक्ति किससे अधिक शक्तिशाली
होगा। प्रत्येक व्यक्ति का नाम ही उसकी पहचान है। विद्वानों के मत से मनुष्य जब सोया
रहता है तब भी उसके चैतन्य की एक कला जगी हुई रहती है। जो उसे सावधान या सतर्क
रखती है। यदि बहुत से मनुष्य एक ही स्थान पर सोये हुए हों तो प्रायः जिसका नाम लेकर
आवाज दी जाती है वही जग जाता है। नरपति जय-चर्चा नामक ग्रंथ में लिखा है कि मनुष्य
के उसी नाम का विचार करना चाहिये जिससे उसे आवाज दी जावे और वह सोते से जग
जावे। ‘नाम’ और नाम की प्रतीक ‘संख्या’ अनादिकाल से ही फलादेश में उपयुक्त होते रहे
हैं।
जिस प्रकार टेलीविजन को जिस चैनल या संख्या पर स्थिर कर देने से उसी ‘संख्या’
पर प्रवाहित कार्यक्रम दिखाई देने लगते हैं और शब्द सुनाई पड़ते हैं। उसी प्रकार ‘संख्या’
विशेष और उस संख्या के प्रतीक ‘वस्तु’ या व्यक्ति में आकर्षण होता है।
नवीन अनुसंधानों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि बहुत प्रकार के कीड़े अपने सजातीय
कीड़ो को सन्देश या संवाद भेज सकते हैं। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार एक खास
चैनल पर टेलीविजन से कार्यक्रम आने लगते हैं उसी प्रकार यह कीड़े भी जो संवाद प्रेषित
करते हैं उनको उनके सजातीय कीड़े ग्रहण कर लेते हैं। भिन्न भिन्न प्रकार के कीड़ो को
एक बड़े बगीचे में अलग अलग कोनों पर छोड़ा गया और वह एक ही केन्द्र स्थल पर जाकर
मिल गए। एक खास प्रकार की मक्खी के झुण्ड को दो स्थानों पर परस्पर एक दूसरे से कई
मील दूर छोड़ कर देखा गया कि वे एक ही स्थान पर आकर मिल जाते हैं।
जंगल में दाना डाल दीजिए पक्षी आजावेंगे। चीनी फैला दीजिए चींटियाँ इकट्ठी हो
जावेंगी। मरा हुआ जानवर डाल दीजिये, गृद्ध और चील आकाश को आच्छादित कर देंगे।
जंगल में कहीं रात्रि में बकरा या पाड़ा बाँध दीजिये तो शेर उसका शिकार करने हेतु आ
जाएगा। बकरे की खुशबू से चिड़ियां नहीं आतीं और चीनी पर शेर नहीं आता। इसी प्रकार
2 द्योतक की संख्या या वस्तु की और उसके सहधर्मी आकृष्ट होते हैं। 1 द्योतक संख्या या
वस्तु या व्यक्ति की और 1 के सहधर्मी आकृष्ट होंगे। अन्य वर्ग के नहीं। यह परस्पर
आकर्षण का सिद्धान्त है। यह सामान्य नियम है।

इसी प्रकार अंक ज्योतिष को जानने वाले यह जानते हैं कि ‘1’ मूल अंक वाले व्यक्ति को
‘1’ मूल अंक शुभ जावेगा और उसकी विशेष मित्रता भी ‘1’ मूल अंक वाले व्यक्ति से होगी
तथा ‘2’ मूल अंक वाले व्यक्त्ति को ‘2’ मूल अंक की संख्या शुभ जावेगी और उसकी विशेष
मित्रता भी ‘2’ मूल अंक वाले व्यक्ति से होगी।

अंक विद्या का पूरी तरह प्रकाशन करना संभव नहीं है। भगवत् गीता में 18 अध्याय
ही क्यों हैं ? महाभारत में 18 पर्व ही क्यों हैं? 18 पुराणों की संख्या का वैज्ञानिक आधार
क्या है ? इस ’18’ की योग संख्या 1+8 = 9 है, यह क्यों ? हमारे ऋषि मुनि दिव्य ज्ञान
के कारण जो पद चिन्ह छोड़ गये हैं, हम तो केवल उनका अनुशरण ही कर सकते हैं।
श्रीमद् भागवत में 12 स्कन्ध ही क्यों हैं ? दशम स्कन्ध इतना बड़ा हो गया कि उसे ‘पूर्वार्ध’
और ‘उत्तरार्ध’ इन दो खंड़ो में विभाजित करना पड़ा। विभाजन न करते हुए 13 स्कन्ध क्यों
नहीं किए 12 ही क्यों रखे ? रामायण का 9 दिनों में पारायण और भागवत का सप्ताह (7
दिन में पारायण) क्यों ? गायत्री में 24 अक्षर ही क्यों हैं? विवाह के समय सप्तपदी ही क्यों
होती है। गणेश की चतुर्थी, दुर्गा की अष्टमी, सूर्य की सप्तमी, विष्णु की एकादशी तथा रूद्र
की प्रदोष व्यापिनी त्रयोदशी ही क्यों है ? इत्यादि ऐसे अनेक अंक विद्या संबंधी वैज्ञानिक
विषय हैं जिनका विवेचन करना यहाँ संभव नहीं है। अंक विद्या का रहस्य इतना गंभीर है
कि इसमें जितना अधिक नीचे उतरेंगे उतने ही बहुमूल्य रत्न हाथ लगेंगे। यदि आप इसके
नियमों का अध्ययन कर, अपने स्वयं के जीवन की घटनाओं से यह नतीजा निकाल सकें कि
कौन से दिन और दिनांक आप को ‘शुभ’ या ‘अशुभ’ जाते हैं तो केवल इस ज्ञान से आप
अपने को बहुत लाभ पहुँचा सकते हैं।

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