dan | दान को सर्व श्रेष्ठ क्यू मनागाया हैदान क्यों देना?

जिस प्रकार अपने रुपये बैंक में जमा रहने पर ही, अपने चेक का भुगतान किय जाता है । उसी प्रकार पुण्य कर्म जमा रहने पर ही आपको भुगतान किया जाता है पुण्य का भुगतान, मनुष्य को सुख समृद्धि के रूप में किया जाता है, अत: सुख समान के इच्छुक व्यक्तियों ने दान, व्रत और पूजा करके अपने पुण्य का बैंक बैलेन्स बढ़ा रहना चाहिये।

जितने पवित्र कर्म हैं, उनमें दान ही सबसे बढ़कर है । दान करनेवाला प्राणदात समझा जाता है । जैसे वेदों का स्वाध्याय इन्द्रियों का संयम और सर्वस्व त्याग उत्तम है, उसी प्रकार दान भी इस संसार में उत्तम माना गया है।

सम्पन्नता का सदुपयोग दान के माध्यम से करना, दान का अर्थ है धन का सदुपयोग, अपने पुरुषार्थ के अनुसार दान करना गरीब के लिये एक मठि अन्न दना। भी महाफलदायी है, धन-लक्ष्मी का स्वरूप है. इसका सदपयोग होने से यह प्रसव रहता है, जन्म-जन्मान्तर में किए हए दान का फल प्राणी को अगले जन्मा मामला रहता है।

वर्तमान पीढ़ी के किए हए सत्कर्म का फल भावी पीढी को भी मिलता उसा प्रकार वर्तमान पीढी का किया हआ दष्कर्म का फल भी भावी पाढा भा जैसे भाईयों का और साझीदारों का बंटवारे में हिस्सा दबाना मन्दिर आर दान

द्रव्य को अपने प्रयोग में लाना (अपने घर लाना), ब्राह्मण और बेटी का द्रव्य अपने प्रयोग में लाना, आदि सब दुष्कर्म है । अतः दानरूपी सत्कर्म करें।

दान करके हृदय में सुख अनुभव कीजिए, दुष्कर्म करने के पहले स्वयं की आत्मा को एक बार पूछ लीजिए।

दिया हुआ मिलता है, खेती में जितना बोते हैं उतना पाते हैं। दान की खेती करना है, जो देते हैं वो पाते हैं। दान का अर्थ दूसरे का दुःख हरण करना है। पारलौकिक सुख के लिए दान करते हैं। दान करना जीवन का अंग है। परमार्थ के लिये दान करना। सतपात्र को दान देना।

सतयुग में तपस्या को ही सबसे बड़ा धर्म माना गया है, त्रेता में ज्ञान को ही उत्तम बताया गया है ।द्वापर में यज्ञ व कलियुग में एकमात्र दान ही श्रेष्ठ कहा गया है।

कलियुग में कीर्ति के लिए दान किए जाएंगे, कलियुग में दान करने का विशेष माहात्म्य है।

कहते हैं धर्म की जड़ सदा हरी रहती है । धर्म का यह मार्ग बहुत बड़ा है, तथा इसकी बहुत सी शाखाएँ हैं।

ऐसी करनी कर चलो, हम हंसे जग रोए। दान के रूप में लोगों पर उपकार करना । दान के समान दूसरा सुख नहीं है। किसी को देकर उसे आनन्दित होते देखकर खुद भी आनन्दित होईये। दान से बढ़कर धन का कोई सदुपयोग नहीं। दान हाथ का कंगन है दान से ही हाथ की शोभा है। यदि आप पर लक्ष्मी की कृपा है तो,

पहले खुद, फिर परिवार, फिर पड़ोसी, फिर गांव की ओर, नजर करके जरुरतमंद । की मदद करना।

घर में लक्ष्मी बढ़ने पर दोनों हाथ खुले चाहिए, जिससे द्रव्य रूपी दान सरिता । बहती रहे।

कुछ करके जाईये, दुनिया तुम्हें याद करेगी।

दान देने से धन और काया की शुद्धि होती है, सब शुद्धि में धन की शुद्धि उत्तम मानी जाती है, दान के माध्यम से धन की शुद्धि करना, धन की प्रथम गति दान श्रेष्ठ मानी जाती है।

चार दिन की यात्रा आपको करनी हो तो, आप अटैची तैयार करते हैं, अटैची में कितने कपड़े रखते हैं। हर समय के लिये अलग-अलग वस्त्र रखते हैं और मरकर लम्बी यात्रा करनी है, उसकी आपने कोई अटैची तैयार नहीं की।

“जाना है परदेश कू, और सामा करत अनंत ।

ना जाने वा देश कू, क्युं बैठा निश्चित ।।”

। इसलिए दान करके पूण्य की अटैची सदा तैयार रखिये।

मनुष्य जन्म लेकर आता है, मुठ्ठी बांधकर आता है, मनुष्य मर कर जाता है, खुले हाथ जाता है, जो भी कर्म साथ लेकर आए, उसे भोग लोगे, कर लोगे, खा लोगे और अंत में हाथ खोलकर चले जावोगे। इसलिए मृत्यु के पहले सत्कर्म मुठ्ठी में

बांध लेना। * ब्राह्मण और आरण्यक साहित्य में दान-विचार ___वेद परम्परा के साहित्य में भी दान की मीमांसा पर्याप्त हई है । मूल वेदों में। भी यत्र-तत्र दान की महिमा हैं । उपनिषदों में ज्ञान-साधना की प्रधानता होने से आचारा। का गोण स्थान मिला है, परन्त आचार मलक ब्राह्मण साहित्य में आरण्यक साहित्य म आर स्मृति साहित्य में दान के सम्बन्ध में बहत विस्तार से वर्णन किया गया है । आरण्यक में कहा गया है कि “सभी प्राणी दान की प्रशंसा करते है, दान सब अन्य कुछ भी दुर्लभ नहीं है । इस वाक्य में दान को दुर्लभ कहा गया है। आभप्राय हे. कि दान करना आसान काम नी सम्पनि

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