३. मकान-मकान से आशय है ऊपर बताए दोनों सुखों को सही रूप से भोगते हुए समाज में प्रतिष्ठापूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए स्थायी रूप से निवास करना है
अतः संसार का प्रत्येक प्राणी अपने सुख पूर्वक आवास के लिए ऐसे स्थान की खोज में रहता है कि वह वहां रहते हुए लौकिक एवं परलौकिक सुखों को भोगते हुए ऐसा जीवन व्यतीत करें, आरोग्यता, सुन्दर जीवनसाथी, संतति-लाभ, धन प्राप्ति, व्यापार एवं राज्य सेवा, सामाजिक लाभ, मान-प्रतिष्ठा, शास्त्रीय ज्ञान और आत्मिक शान्ति का समावेश हो। इन सबके लिए जरूरी है निवास स्थान का वास्तु शास्त्र के अनुरूप निर्माण हो ।
vastu वास्तु शास्त्र में चारों दिशाओं और सहायक कोणों का विशेष महत्व है। हमारे ऋषि-मुनियों ने आधुनिक विज्ञान के विकसित होने से अनेक वर्षों पहलें सूर्य किरणें में निहित जीवनदायक तत्वों का पता लगा लिया था। इसलिए उन्होंने आवास को पूर्वोन्मुखी बनाने का विधान बनाया। साथ ही अन्य कोणों के देवताओं के अनुरूप गृह निर्माण की योजना बनाई ताकि मनुष्य वास्तु के सिद्धान्त के अनुरूप भवन निर्माण करके सुख-समृद्धि, आरोग्य वृद्धि और मानसिक शान्ति के साथ सुखमय जीवन व्यतीत कर
सके ।
भवन निर्माण में विभिन्न भागों का दिशा निर्धारण
भवन में सबसे पहले दीवारो की ओर ध्यान देना चाहिए। दीवार सीधी, प्रत्येक कोण ६० डिग्री का होना चाहिए। कमरों में रोशनी हवा का पूरा ख्याल रखते हुए खिड़कियों एवं सामान रखने के लिए आलमारी आदि का निर्माण करना चाहिए। भवन में विभिन्न कक्षों की वास्तु अनुरूप स्थिति निम्नलिखित स्थिति में होना चाहिए।
१. पूजा स्थल- पूजन-भजन, कीर्तन, अध्ययन-अध्यापन भवन के ईशान कोण में होना चाहिए एवं पूजा करनेवाले व्यक्ति का मुंह पूर्व या उत्तर की ओर रहना चाहिए।
२. रसोई घर- भवन में रसोई घर आग्नेय कोण अथवा पूर्व आग्नेय कोण के मध्य में बनना चाहिए।
३. शयन कक्ष- दक्षिण में अग्नि कोण छोड़कर नैऋत्य कोण तक एवं पश्चिम में वायव्य कोण छोड़कर नैऋत्य कोण तक शयनकक्ष बना सकते हैं। गृह स्वामी का शयन कक्ष दक्षिण नैऋत्य कोण में होना चाहिए सोते समय सिरहाना दक्षिण में एवं पैर उत्तर दिशा में होना चाहिए।
४. स्वागत कक्ष- (बैठक) वायव्य कोण अथवा ईशान एवं पूर्व में अग्नि कोण के पहले बनाना चाहिए।
५. भूमिगत पानी की टंकी- भूमिगत पानी की टंकी के लिए ईशन कोण सर्वोत्तम स्थान है। विशेष परिस्थितियों में उत्तर या पूर्व दिशा में टंकी बना सकते हैं।
६. छत के ऊपर पानी टंकी- वायव्य कोण को छोड़कर पश्चिम दिशा के मध्य भाग में छत के ऊपर पानी की टंकी बना सकते हैं।
मतस्य पुराण में अंधकासुर नामक राक्षस की कथा का उल्लेख है, इसके अनुसार अंधक राक्षस ने भगवान शिव से युद्ध किया और उस युद्ध में परिश्रम के कारण भगवान शिव के पसीने की एक बुन्दनिपात होने
फलस्वरूप एक
अद्भुत प्राणी का जन्म हुआ जिसे देखकर सभी देवता और राक्षस भयभीत हुए इस अद्भुत प्राणी को पकड़कर सभी लोग ब्रह्माजी के समक्ष उपस्थित हुए और इसके विषय में उपरोक्त बात जानने पर इसको ब्रह्माजी की आज्ञा से इसका सिर नीचे एवं पैर ऊपर की ओर रखते हुए आकाश से भूमि पर गिरा दिया भूमि पर इसके गिरने से सिर ईशान्य कोण में तथा पैर नैऋत्य कोण में रहे इसी अद्भुत प्राणी का नाम वास्तु पुरुष रखा गया जो भूमि पर शयन करते
एक दिन भद्रपद मास की कृष्णपक्ष तृतीया तिथि दिन शनिवार, कृतिका नक्षत्र, व्यतिपात योग व विष्टिकरण व कुलिक मुहूर्त में जन्मा महाभूत रूप वास्तु पुरुष भयंकर शब्द करता हुआ ब्रह्माजी के पास पहुंचा और बोला- हे प्रभो! आपने सम्पूर्ण चराचर जगत की रचना की है पर मुझ निरपराध को देवगण अत्यन्त पीड़ा देते हैं। मेरी भी कुछ सोचें ।
वास्तु-पुरुष की विनती सुन ब्रह्माजी ने कहा- हे वास्तु पुरुष जहां कहीं ग्राम-शहर, दुर्ग, जलाशय, भवन आदि का निर्माण होगा वहां तुम्हारी पूजा होगी, न करने वाला दरिद्रता को एवं मृत्यु को प्राप्त होगा और पूजन करने वाला स्वस्थ, पराक्रमी, प्रतिष्ठित, सम्पन्नतायुक्त होगा। तथास्तु ।
भवन निर्माण में सर्वप्रथम दिशाओं और कोणों का ज्ञान आवश्यक है।
दिशाएं चार होती है-
१. पूर्व प्रातःकाल सूर्य जिस दिशा में उदय होता है उसे पूर्व दिशा कहते हैं।
२. पश्चिम– सायंकाल सूर्य के अस्त होने की दिशा पश्चिम होती है। ३. उत्तर- प्रातःकाल सूर्य के सम्मुख खड़े होने पर सामने पूर्व – बाएं हाथ की ओर उत्तर दिशा होती है।
४. दक्षिण – प्रातःकाल सूर्य के सम्मुख खड़े होने पर सामने पूर्व और दाहिने हाथ की ओर दक्षिण दिशा होती है।
जहां दो शिएं मिलती हैं वह कोण कहलाता है १. ईशान कोण – उत्तर एवं पूर्व दिशा के मिलने से बनने वाले कोण को ईशान कोण कहते हैं ।
२. आग्नेय कोण – पूर्व एवं दक्षिण दिशा के मिलने से बनने वाला कोण अग्नेय (अग्नि) कोण कहलाता हैं।
३. नैऋत्य कोण – दक्षिण और पश्चिम के मिलने से बनने वाला कोण नैऋत्य कोण कहलाता हैं।
४. वायव्य कोण- पश्चिम और उत्तर दिशाओं के मिलने से बनने वाला कोण वायव्य कोण कहलाता हैं। दो दिशाएं
और होती हैं एक ऊपर आकाश की ओर (ऊर्ध्व दिशा) तथा एक दूसरी नीचे पृथ्वी की ओर (अधो दिशा) होती है।
दिशा ज्ञान, दिशा-बोधक यंत्र को भूखण्ड के केन्द्र (मध्य) में रखकर
किया जाता है।
७. कुआं-ट्यूबवेल- कुआं-ट्यूबवेल, हैंडपम्प के लिए इशान कोण
श्रेष्ठ हैं।
८. जल निकासी- पूर्व, वायव्य, उत्तर और ईशान कोण में रखना चाहिए। ढलान दक्षिण की ओर से उत्तर की ओर रखनी चाहिए यानि
दक्षिण ऊँचा होना चाहिए।
६. स्नानघर – नैऋत्य कोण एवं दक्षिण दिशा के मध्य अथवा पश्चिम दिशा के मध्य भाग में बनान उपयुक्त है। बाथरूम में गीजर (अग्नि) को बाथरूम के अग्नि कोण में लगाना चाहिए।
१०. शौचालय – नैऋत्य कोण से दक्षिण दिशा के मध्य अथवा नैऋत्य कोण से पश्चिम दिशा के मध्य बनाना चाहिए।
११. आंगन– भवन का केन्द्रीय स्थल ब्रह्मा का स्थान है इसे खुला होना चाहिए।
१२. विद्युत एवं प्रकाश – विद्युत (बिजली) का मैन स्विच बोर्ड-मीटर आदि भवन के दक्षिण भाग में आग्नेय कोण में लगाना चाहिए, प्रत्येक कक्ष में प्रवेश करते समय दाहिने हाथ की ओर बटन होना चाहिए।
१३. सीढ़ियां – सीढ़ियों का द्वार पूर्व या दक्षिण में होना शुभ फलदायी होता है। सीढ़िया भवन के पार्श्व में दक्षिण व पश्चिम भाग के दाई और हो तो उत्तम है। घुमावदार सीढ़ियां पूर्व से दक्षिण से पश्चिम से उत्तर और उत्तर से पूर्व की ओर होनी चाहिए ।
१४. तिजोरी – कुबेर का पास उत्तर दिशा में होता है अतः भवन में उत्तर दिशा में तिजोरी, गल्ल, नकदी आदि रखना चाहिए।
१५. तलघर- तलघर भवन में पूर्व दिशा या उत्तर दिशा में बनना चाहिए ।
सेप्टिक टैंक- वास्तु के अनुसार सेप्टिक टैंक भवन के उत्तर-पश्चिम (वायव्य कोण) में बनाना चाहिए।
संक्षिप्त में वास्तु-शास्त्र के मुख्य सिद्धांत
१. भूखंड में जल स्रोत एवं बाहर से जल की आवक ईशान, पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर से आना चाहिए एवं जल की निकासी भी इन्हीं दिशाओं से होनी चाहिए।
२. भवन में रसोई घर अग्नि कोण में होना चाहिए। बिजली का मैन बोर्ड, मीटर तथा विद्युत से चलने वाले उपकरण अग्निकोण में होने चाहिए। ३. भवन में वायु (हवा) का प्रवाह वायव्य कोण से होना चाहिए। वायु के लिए द्वार- – खिड़कियां सदैव सम संख्या में बनाने चाहिए। द्वार एवं खिड़कियां उत्तर, पूर्व, पश्चिम में बनाना चाहिए, उक्षिण के तरफ खुलने वाली खिड़किया नहीं बनाना चाहिए।
४. भवन के फर्श की ढलान पूर्व, उत्तर, ईशान में होनी चाहिए, भवन में दक्षिणी एवं पश्चिमी भाग उत्तरी एवं पूर्वी भाग से ऊंचा एवं भारी होना चाहिए। भवन का नैऋत्य कोण का हिस्सा सबसे ऊंचा एवं भारी होना चाहिए।
५. भवन का ईशान कोण खाली सबसे नीचा स्वच्छ होना चाहिए यहां गंदगी कदापि नहीं होनी चाहिए। पुराना कबाड़ वगैरह नहीं रखना चाहिए।
६. दक्षिण दिशा में घर का मैन दरवाजा एवं खिड़कियां नहीं होनी चाहिए।
७. पूजा करते समय, खाना बनाते समय, अध्ययन करते समय मुंह पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए।
८. पूजा घर कभी भी शयन कक्ष में नहीं बनाना चाहिए।
६. ज्ञान प्राप्ति के लिए उत्तर में मुंह करके एवं धन प्राप्ति के लिए पूर्व
की ओर मुंह करके पूजा करनी चाहिए।
१०. बैठक में बैठने की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिससे गृह स्वामी का मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर हो।
स्वास्तिक सकारात्मक ऊर्जा का महास्तोत्र है।
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हमारो पूर्वजों ने स्वास्तिक को आध्यात्मिक एवं मंगलकारी पाया है। विदेशों में हुई रिसर्च में वैज्ञानिक हार्टमेण्ट अनसर्ट ने “आवेएंटिजा” नामक यंत्र द्वारा अदृश्य सकारात्मक ऊर्जा को मापा तथा सभी चिन्हों में स्वास्तिक को सर्वाधिक सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करने वाला पाया। इस ऊर्जा को उन्होंने “वोविस” मात्रा से नापा। स्वास्तिक चिन्ह में सकारात्मक ऊर्जा शक्ति 100000 (एक लाख) है। घर के बाहर मुख्य दरवाजे के उपर कुमकुम या सिंदूर+गाय घृत मिक्स करके अपने हाथ की 9 अंगुली जितना लम्बा और 9 अंगुली जितना चौड़ा बना स्वास्तिक चिन्ह, भवन का बड़े से बड़ा वास्तुदोष दूर कर देता है।
यह स्वास्तिक चिन्ह मानव, समाज, राष्ट्र ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लिए कल्याणकारी होगा। क्योंकि हम सभी जानते हैं कि सकारात्मक सोच व सकारात्मक ऊर्जा ही सभी दुःखों, कष्टों, समस्याओं का समाधान एवं मंगलकारी है। (गीता प्रस)
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समाधान वाटावे म्हणून देवासाठी स्वतंत्र खोली असावी. तेव्हा तेच ‘देवघर’ होय. ही खोली वास्तूच्या ईशान्य दिशेच्या कोपऱ्यामध्ये असावी. कारण ईशान्य या दिशेचा अर्थच ‘ईश्वर’ असा आहे. ईश्वराचे स्थान म्हणजे ईशान्य. नेहमी देवाच्या मूर्तीचे तोंड पश्चिमेकडे व पूर्वेकडच्या भिंतीस पाठ असावी. नव्या घरात देवघरासाठी स्वतंत्र खोली नसल्यास देवाचे स्थान निदान ईशान्येस कोपऱ्यामध्ये निश्चित करावे.