सूतजी ने कहा हे ब्रह्मणों, जिसने व्रत किया उस कथा को कहता हूँ, काशीपुरी नामक सुन्दर नगर में एक निर्धन शतानन्द ब्राह्मण रहता था। वह ब्राह्मण क्षुधा और तृषा से व्याकुल हो नित्य ही पृथ्वी के ऊपर विचरता था। ब्राह्मणों से स्नेह करने वाले भगवान् उस ब्राह्मण को दुःखी देखकर वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर आदरपूर्वक पूछा- हे ब्राह्मण! तुम भूमि से ऊपर अत्यन्त दुःखी हो क्यों भटकते हो। द्विजोत्तम, मैं उसका सारा कारण सुनना चाहता हूँ कहो। ब्राह्मण ने कहा- मैं अन्यन्त दरिद्र हूँ। भीक्षा मांगने के लिए पृथ्वी पर भ्रमण करता हूँ। हे प्रभो, मेरी दरिद्रता दूर करने का उपाय जानते हों तो कृपा कर बतलाइये। वृद्ध ब्राह्मण ने कहा- सत्यनारायण विष्णु मनोरथ सिद्ध करने वाले है। हे ब्राह्मण, आप उन्हीं का पूजन करें, जिनका पूजन करने मात्र से मनुष्य समस्त दुखों से मुक्त हो जाते हैं। विधिपूर्वक व्रत को बतलाकर ब्राह्मण रूपधारी सत्यनारायण भगवान् वहां ही अन्तर्धान हो गए। वृद्ध ब्राह्मण ने जिस व्रत को कहा है उस व्रत को अवश्य करूँगा, यों सोचते हुए रात्रि में निद्रा न आई। प्रातः काल उठकर वह ब्राह्मण सत्यनारायण व्रत करने का संकल्प कर भिक्षा माँगने के लिए चल पड़ा। उस दिन विप्र को बहुत धन की प्राप्ति हुई और उस धन से बन्धु बान्धवों सहित उसने सत्यनारायण व्रत किया। वह ब्राह्मण व्रत के प्रभाव से समस्त दुःखों से मुक्त हो सम्पूर्ण सम्पत्ति से युक्त हो गया। उसी दिन से प्रत्येक महीने व्रत करने लगा। य सत्यनारायण के व्रत को कर वह द्विजोत्तम । समस्त पापों से मुक्त हो उसे मोक्ष प्राप्त हुआ। सत्यनारायण व्रत को पृथ्वी पर जो कोई करता है उस मनुष्य के सब दुःख नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार भगवान् श्री विष्णु ने नारदजी से कहा हे ब्राह्मणों, मैंने यह व्रत आप लोगों को सुनाया और
क्या वर्णन करूँ? यो सुनकर ऋषि ने कहा- हे मुने! उस ब्राह्मण से सुनकर पृथ्वी पर किसने किया? वह हम सुनना चाहते हैं क्योंकि हमारी विशेष श्रद्धा है। सूतजी ने कहा- जिसने इस व्रत को भूमि पर किया उसकी कथा सुनो एक दिन वहीं श्रेष्ठ ब्राह्मण धन और ऐश्वर्य के अनुसार। स्वजन बन्धुओं सहित व्रत करने को उद्यत हुआ। काष्ठ-विक्रेता ( लकड़ी बेचने वाला) आया। वह काष्ठ के भार को बाहर रखकर ब्राह्मण के घर में गया। प्यास से उसकी आत्मा व्याकुल हो रही थी, परंतु वहाँ ब्राह्मण को व्रत करते देखकर। ब्राह्मण को प्रणाम कर कहने लगा- आप यह क्या करते हैं और इसके करने से किस फल की प्राप्ति होती है। हे प्रभो! यह सब विस्तारपूर्वक वर्णन करें। ब्राह्मण ने कहा- यह सत्यनारायण व्रत समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। इसी व्रत के प्रभाव से मुझे धन-धान्य प्राप्त हुआ। इस व्रत की ऐसी महिमा उस ब्राह्मण से सुनकर काष्ठ विक्रेता अत्यन्त प्रसन्न हुआ । प्रसाद ग्रहण कर और जल पीकर नगर में चला गया।
भगवान् सत्यनारायण के लिए मन में ऐसा विचार करने लगा कि आज इस नगर में लकड़ियों के बेचने से जो धन प्राप्त होगा। उसी से मैं सत्यनारायण के उत्तम व्रत को करूँगा यों विचार कर लकड़ी को सिर पर रखा। जहाँ बड़े-बड़े धनी लोग रहते थे उस नगर में गया। वहाँ उस दिन लकड़ी बेचने से दूना धन प्राप्त हुआ। प्रसन्न हृदय हो उसने पके केले, चीनी, घृत, दूध और गेहूं का चूर्ण लिया। सबको सवाया इकट्ठा कर अपने घर गया। वहाँ बन्धु-बान्धवों को बुलाकर विधिपूर्वक व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से काष्ठ विक्रेता धन और पुत्र से सम्पन्न हो इस लोक में सुख भोग कर अन्त में सत्य लोक को चला गया।
सूतजी ने कहा हे श्रेष्ठ मुनियों में आगे कथा कहता हूँ तुम सुनो पहिले उल्कामुख नाम का बुद्धिमान, जितेन्द्रिय और सत्यवादी राजा था, वह धर्मात्मा नित्य प्रति देव मन्दिर में जाता था, और ब्राह्मणों को दान देता था। उसकी स्त्री कमलवदना पतिव्रता थी। वे दोनों भद्रशील नदी के तट पर सत्यनारायण का व्रत करते थे। इतने ही में वहाँ एक साधु नामक वैश्य आया। वह वैश्य व्यापार के लिए बहुत प्रकार के धनों से भरी नाव को उस नदी के किनारे पर ठहरा कर राजा के पास गया। वहाँ वैश्य ने राजा को व्रत करते देख नम्रता से पूछा । वैश्य ने कहा- हे राजन! आप मन मैं अधिक भक्तियुक्त हो किसकी पूजा करते हैं। यह सब आप मुझसे भी कहें। क्योंकि मेरी सुनने की इच्छा है। राजा ने कहा- हे साधो, मैं अतुल तेजस्वी भगवान विष्णु का कुटुम्बियों सहित पुत्र की कामना से पूजन तथा व्रत करता हूँ। राजा के वचन सुनकर वैश्य ने सम्मानपूर्वक कहा- हे राजन, इस व्रत का समस्त विधान मुझसे भी कहें मैं भी आपके कथनानुसार व्रत करूँगा। मुझे भी सन्तान नहीं है। इस व्रत के करने निश्चित होगी। राजा ने सत्यनारायण व्रत का सन्ततिदायक विधान कहा। वह वैश्य व्यापार से निवृत हो प्रसन्न होकर अपने घर आया। उसने सन्तान को देनेवाले व्रत का वृत्तान्त अपनी स्त्री से कहकर बोला कि मैं भी व्रत करूँगा यदि हमारे यहां सन्तान का जन्म होगा। इस प्रकार उस वैश्य ने अपनी स्त्री लीलावती को व्रत का सम्पूर्ण महातम्य सुनाया। एक दिन उसकी पतिव्रत स्त्री लीलावती । पति सहित चित्त में आनन्दित होकर सांसारिक धर्म में तत्पर हुई और सत्यनारायण की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उसने एक रत्नरूपी कन्या को जन्म दिया। वह कन्या जैसे शुक्ल पक्ष द्वितीया से पूर्णिमा तक चन्दमा बढ़ता है। उसी तरह बढ़ने लगी, अतः उस कन्या का नाम कलावती रखा। तदन्तर लीलावती ने अपने स्वामी से मधुर वचन कहा। हे स्वामी आपने जिस व्रत का संकल्प लिया था उसे क्यों नहीं करते हैं? वैश्ये ने कहा हे प्रिये, कन्या के विवाह के समय सत्यनारायण का व्रत करूँगा। इस प्रकार स्त्री का समझाकर वैश्य दूसरे नगर में व्यापार करने चला गया। इधर वह कन्या कलावती अपने पिता के घर वृद्धि को प्राप्त होने लगी। तदन्तर उस वैश्य ने नगर की सखियों के साथ खेलती हुई उस कन्या को विवाह के योग्य देखा तो विवाह करने की मन्त्रणा पर तुरन्त दूत भेज दिया और कहा कन्या के विवाह के लिए श्रेष्ठ वर खोजो ऐसी आज्ञा पाकर वह दूत कचन नगर में पहुँचा वहाँ से एक सुन्दर बनिये के पुत्र को सुन्दर गुणवान देखकर, जाति बन्धुओं सहित वैश्य ने चित्त में सन्तुष्ट होकर विधि विधान से कन्या दान कर दिया। परन्तु भाग्यवश उस व्रत का विस्मरण हो गया। कन्या के विवाह के समय व्रत न करने मात्र से भगवान सत्यनारायण रुष्ट हो गए। कुछ दिनों के बाद कार्य में कुशल वैश्य दामाद सहित व्यापार के लिए चल पड़ा। समुद्र के समीप रत्नसारपुर में जाकर अपने श्रीमान् दामाद के साथ वैश्य व्यापार करने लगा। तत्पश्चात् दोनों राजा चन्द्रकेतु के रमणीक नगर में चले गए। उसी समय सत्यनारायण भगवान ने साधु को भ्रष्ट प्रतिक्ष देखकर शाप दे दिया कि तुम्हें कठिन दुःख होगा। एक दिन राजा के धन को चुराकर चोर वहीं आकर ठहर गए। जहाँ । दोनों वैश्य ठहरे हुए थे। उसी समय राजा के दूतों को वेग से आते देख मन में भयभीत हो धन को उसी स्थान में छोड़कर चोर तुरन्त भाग गए। इधर दूत सज्जन वैश्य के निकट आये। वहाँ के धन को रखा देख उन बनियों को बांधकर ले आये। प्रसन्नता से दौड़ते हुए राजा के समीप जाकर दूत ने कहा- हे प्रभो, हम चोरों को पकड़ लाए हैं। इन्हें देखकर आज्ञा दीजिए। राजा की आज्ञा पाकर दूतों ने बिना विचारे ही उन दोनों को बांधकर जेलखाने भेज दिया। सत्यनारायण की नाराजगी से उनका कहना नहीं सुना और चन्द्रकेतु ने उनका सब धन ले लिया। इधर भगवान के शाप से वैश्य की स्त्री अतिदुःखिल हो गई और जो कुछ घर में रखा था वह सब चोरों ने चुरा लिया। आधि-व्याधि, भूख-प्यास और अन्न की चिन्ता में दुःखी होकर वह घर-घर फिरने लगी। कलावती कन्या भी प्रतिदिन घर-घर
भिक्षा माँगने लगी। एक दिन वह कन्या क्षुधा से व्याकुल हो सायंकाल ब्राह्मण के घर गई वहाँ जाकर उसने सत्यनारायण की पूजन देखी। वहाँ बैठकर कथा सुनी उसने वर माँगा और प्रसाद गृहण कर रात्रि में घर आई। उसकी माता कलावती से प्रेमपूर्वक पूछने लगी है पुत्री इतनी रात्रि तक तुम कहाँ थी और तेरे मन में क्या है? तुरन्त कन्या ने माता से कहा है माता! मैंने ब्राह्मण के घर मनोरथ सिद्ध करने वाला व्रत व पूजन देखा है। | कन्या का वचन सुनकर वैश्य की स्त्री प्रसन्न हो सत्यनारायण का व्रत करने को उद्यत हुई। उस पतिव्रता ने बन्धु बान्धवों सहित सत्यनारायण का व्रत किया और वर माँगा प्रार्थना की कि मेरे पति और दामाद शीघ्र ही अपने घर को चले आयें। आप मेरे स्वामी और दामाद का अपराध क्षमा करें। इस व्रत के करने से भगवान् सत्यनारायण फिर प्रसन्न हो गए। भगवान् सत्यनारायण ने श्रेष्ठ राजा चन्द्रकेतु को स्वप्न दिया कि हे राजन! बन्दीगृह में उपस्थित दोनों वैश्यों को सुबह होते ही छोड़ दो। और जो कुछ तुमने धन लिया है वह भी तुरन्त दे दो नहीं तो राज्य, धन और पुत्र सहित तेरा नाश कर दूँगा यों कहकर भगवान् प्रभु अन्तर्ध्यान हो गए। तदन्तर प्रातःकाल होते ही राजा ने स्वजनों सहित सभा के मध्य लोगों से अपना | रातवाला स्वप्न कहा और आज्ञा दी कि बन्दीगृह में पड़े दोनों वैश्यों को छोड़ दो। राजा के वचन सुनकर राजपुरुष महाजन वैश्यों को बन्धन से | मुक्त कर नम्रता से राजा के समक्ष लाकर कहने लगे। दोनों वैश्यों को बन न मुक्त कर ले आये हैं, दोनों महाजन वैश्यों ने चन्द्रकेतु को प्रणाम कर। पूर्व वृत्तान्त का स्मरण कर भय से व्याकुल हो कुछ भी नहीं कहा। राजा वणिक पुत्रों से आदरपूर्वक कहने लगा। अपने भव्य से महादुःख प्राप्त किया है अब तुम्हें कुछ भय नहीं है यों कहकर बेड़ियां कटवा कर क्षीरकर्मादिक करवाया। राजा ने वस्त्र आभूषण देकर उनको आदर सहित वचनों से अत्यन्त संतुष्ट किया और जो कुछ राजा ने धन पहले लिया था उसका दूगना धन दिया। फिर राजा ने उन महाजनों से कहा- हे महाजनों, अपने घर जाइये राजा को प्रणाम कर वैश्यों ने कहा- अब आपकी कृपा से चले जायेंगे। यो कहकर वे दोनों महाजन वैश्य अपने घर को चले।
सूतजी बोले- साधु ने प्रथम मंगल विधान कर यात्रा की तथा वह ब्राह्मणों को धन देकर अपने नगर को चल उन महाजन वैश्यों के थोड़ी दूर पहुँचने पर सत्यनारायण प्रभू ने जिज्ञासा की, कि तेरी नाव में क्या भरा है मदोन्मत्त वैश्य ने हँसकर कहा- महात्मा आप क्यों पूछते हैं? क्या आप रुपया लेने की इच्छा करते हैं? हमारी नौका में लता पत्र भरे हैं। भगवन् ने ऐसे कठोर वचन सुनकर कहा तुम्हारा वचन सत्य हो । भगवान दण्डी ऐसा कहकर थोड़ी दूर जाकर समुद्र के तीर पर बैठ गये। दण्डी सन्यासी के चले जाने पर वैश्य ने सन्ध्या आदि कर्म किया तब नाव को ऊँची उठी देखकर अत्यन्त विस्मय में पड़ गया। उसमें लता पत्र देखकर वह मूर्छित हो भूमि पर गिर पड़ा। जब वैश्य सचेत हुआ तो, अत्यन्त चिन्ता करने लगा। उस समय उसके जमाता ने कहा आप शोक क्यों करते हैं? भगवान दण्डी ने यह शाप दिया। वही सब कुछ करने को समर्थ है। उन्हीं की शरण में चलें तो मनोरथ सिद्ध होगा। वैश्य जमाता का वचन सुनकर तुरन्त ही भगवान दंडी के पास गया और उनको देख भक्ति भाव से प्रणाम कर कहने लगा। मैंने जो कुछ आपके सामने कहा था सो क्षमा करें, य बारम्बार कहता हुआ शोक से व्याकुल हो गया। उनको रुदन करते देख दण्डी स्वामी ने कहा- हे वैश्य सदन मत करो मेरे वचन को सुनो मेरी आज्ञा तथा पूजा से बर्हिमुख हो जाने से हे दुर्बुद्धे, तुझे बारम्बार दुःख हुआ। भगवान के ऐसे वचन सुनकर वैश्य स्तुति करने लगा। हे प्रभो, आपकी माया से ब्रह्मादि देवता भी मोहित होकर आपके गुण और रूप को नहीं जान सके। तो मैं आपकी माया से मोहित में कैसे जान सकता हूँ। अब आप प्रसन्न हों। मैं आपका अपने वित्त अनुसार पूजन करूँगा मेरी नाव को | पहले की तरह धन से पूर्ण करें और आप मुझ शरणागत की रक्षा भी करें, ऐसी भक्तियुक्त वाणी सुनकर भगवान विष्णु प्रसन्न हो गए। मनोवांछित वरदान देकर भगवान तत्काल वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गए। तदन्तर वैश्य ने नाव के ऊपर चढ़कर नाव को धन से भरी देखा और कहा, सत्यनारायणजी की कृपा से मेरा मनोरथ सफल हो गया, यों कहकर साथियों सहित विधिवत् पूजन कर सत्यनारायण की कृपा से अति प्रसन्न हो पत्न- पूर्वक नाव को सहेज अपने देश को चल दिया। अपने जमाता से वैश्य कहने लगा- हमारी रत्नपुरी नामवाली नगरी को देखो, अपने धन के रक्षक दूत को अपने पर भेजा। यह दूत नगर में धनिये की स्की को देख और प्रणाम कर अभीष्ट वचन कहने लगा। जमाता, बान्धव एवं धन सहित सेठजी नगर के निकट आ गए हैं। दूत के मुख से ऐसी वाणी सुनकर वह पतिव्रता अत्यन्त प्रसन्न हुई और वह सत्यनारायण पूजा से निवृत्त हो अपनी कन्या से बोली हे पुत्री में सेठजी के दर्शन करने जाती हूँ। तुम शीघ्र आना माता के ऐसे वचन सुन और चटपट व्रत समाप्त कर प्रसाद का त्याग कर वह भी पति के दर्शन को चली। इसी से सत्यनारायण भगवान रुष्ट हो – युक्त नाव को धन सहित जल में डूबो दिया। कलावती कन्या तट पति पर अपने पति को न देखकर महाशोक में रुदन करती हुई भूमि पर गिर पड़ी अलक्षित हुई नाव और महादुःखी कन्या को देखकर वैश्य मन में अत्यन्त भयभीत होकर कहने लगा- यह क्या आश्चर्य हुआ । सब मल्लाह भी चिन्ता करने लगे तदन्तर लीलावती कन्या को दुःखी देखकर अत्यन्त व्याकुल हो दुःख से रुदन करने लगी, फिर पति से कहा। अभी नौका सहित अलक्षित कैसे हो गये? में नहीं जानती कौनसे देव के प्रकोप से नाव दूब गई। सत्यनारायण के महात्म्य को जानने की शक्ति किसमें है, यों कहकर स्वजनों सहित अति विलाप करने लगी। लीलावती कन्या को गोद में उठाकर रुदन करने लगी और कलावती अपने पति के अदृष्य होने पर अत्यन्त दुःखित हो अपने पति की खड़ाऊ ले सती होने के लिए मन में निश्चय किया कन्या के ऐसे चरित्र देख कर धर्मवेत्ता वैश्य अपनी सी साहित अत्यन्त शोक से संतप्त हो चिन्ता करने लगा या तो नाव को भगवान सत्यनारायण ने हर लिया है या मैं ही सत्यनारायण की माया से
मोहित हो रहा हूं। मैं धन और वैभव के अनुसार भगवान सत्यनारायण की पूजा करूँगा। उसने अपना यह मनोरथ सबको बुलाकर सुनाया। बारम्बार पृथ्वी पर दण्ड के समान गिरकर सत्यनारायण को प्रणाम किया तो दीन जनों के पालन करने वाले सत्यनारायण भगवान प्रसन्न हो गए। भक्तों के पालन करनेवाले भगवाना ने साधु को आकाशवाणी द्वारा कहा- तेरी कन्या प्रसाद का परित्याग कर अपने पति को देखने चली आई है। इसी कारण इस कन्या का पति अलक्षित हो गया है। यदि यह घर जाकर प्रसाद भक्षण कर फिर आये तो हे वैश्य! तेरी कलावती का पति मिल जाएगा। कलावती ने आकाश मण्डल से ऐसा वचन सुन तुरन्त घर जा प्रसाद का ग्रहण कर फिर लौटकर आई तो उसने पति को देखा कलावती ने पिता से कहा हे पिताजी! अब घर चलें, विलम्ब क्यों करते हैं? कलावती के ऐसे वचन सुन सेठजी विधानपूर्वक सत्यनारायण का पूजन कर बन्धुओं सहित अपने निवास स्थान को गए, वणिक पुत्र संतुष्ट हो पौर्णमासी और संक्रांति को सदैव सत्यनारायण का पूजन करने लगा। श्री सत्यनारायण की कृपा से इस लोक में सुख भोगकर अन्त में बैकुण्ठ में चला गया।
सूतजी ने कहा- हे मुनि श्रेष्ठों! इनके अन्तर और भी वर्णन करता हूं- तुम सुनो! प्रजा के पालन पोषण करने में निरत एक तुंगध्वज नाम का राजा था। उसने भी सत्यनारायण के प्रसाद का त्याग कर दुःख पाया था। एक समय वह वन में गया और बहुत प्रकार के पशुओं को मारकर बरगद के नीचे बैठकर देखा कि भक्ति भाव से सन्तुष्ट भरपूर बांधव सहित ग्वाले सत्यनारायण का पूजन कर रहे हैं। उसी समय राजा अपने अहङ्कार से पूजन देखकर भी समीप नहीं गया और प्रणाम भी न किया सब लोग सत्यनारायण के प्रसाद को राजा के निकट रख कर इच्छानुसार प्रसाद ग्रहण करने लगे। परन्तु राजा उस प्रसाद का परित्याग कर अपने घर चला गया। उसके सौ पुत्र तथा जो धन्यधान्यादिक था सब नष्ट हो गया। राजा ने अपने मन में विचारा सत्यदेव ने ही धन और मेरे मेरे पुत्रों को नष्ट किया है, यह ठीक निश्चय है। अब वहीं चलना चाहिए जहाँ सत्यनारायण का पूजन हो रहा था मन में ऐसा निश्चय कर ग्वालों के पास गया। वहाँ भक्ति और श्रद्धा से ग्वालों के साथ उस राजा ने विधिपूर्वक सत्यनारायण का पूजन किया। वह सत्यदेव की कृपा से पुनः धन तथा पुत्रों से युक्त हो गया। इस लोक में सुख भोग अन्त समय में वैकुण्ठ चला गया जो परम् दुर्लभ सत्यनारायण के व्रत को करता है और भक्तियुक्क्त हो इस फलदायिनी पवित्र कथा को सुनता है उसे सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य की प्राप्ति होती है। दरिद्र को धन की प्राप्ति और बन्धन में बन्धे प्राणी बन्धन से विमुक्त होते हैं। भयभीत पुरुष भय से छूट जाते हैं इसमें संदेह नहीं। व्रतकर्ता और श्रोता संसार में मनोऽभिलाषित पदार्थों को भोगकर मृत्यु के बाद सत्यलोक चले जाते हैं। हे ब्राह्मणों, मैंने तुमसे सत्यनारायण व्रत का वर्णन किया। इसके करने से मनुष्य समस्त दुःखों से मुक्त हो जाते हैं। सत्यनारायण की पूजा कलियुग में विशेष फलदायिनी है। भगवान को कोई काल, कोई सत्य, कोई ईश, कोई सत्यनारायण कोई सत्यदेव कहेंगे। इस प्रकार अनेक रूपों को धारण कर भगवान सबके मनोरथ पूर्ण करते हैं। कलियुग में सत्यरूपी भगवन का अवतार होगा जो मनुष्य कथा का पाठ करते हैं या जो स्मरण करते हैं, सत्यनारायण की कृपा से उनके पाप नष्ट हो जाते हैं। सूतजी ने कहा- हे मुनिश्वरों, पहले जिन लोगों ने सत्यनारायण का व्रत किया है उनके दूसरे जन्मों का वृतान्त कहता हूँ दूसरे जन्म में शतानन्द नाम का सुदामा नाम का ब्राह्मण पैदा हुआ जिसने श्रीकृष्ण का ध्यान कर मोक्ष पाया। काष्ठ भार वाहक जो भील था, वह गुहराज निषाद हुआ राम वन गमन के समय श्री रामचन्द्रजी का भजन कर मोक्ष को प्राप्त हुआ उल्कामुख राजा दूसरे जन्म में महाराज दशरथ हुए जो रंगनाथ का पूजन कर बैकुण्ठ को गये। साधु नामक वैश्य भी सत्य प्रतिज्ञ मोरध्वज नाम का राजा हुआ जो आरा से स्त्री पुत्र द्वारा आधे शरीर को चीर कर मोक्ष को प्राप्त हुआ तुंगध्वज राजा स्वायन्भुव मनु हुआ जो भगवान सम्बन्धी कर्म कर बैकुण्ठ को प्राप्त किया। जो मनुष्य सत्यनारायण की कथा कहता अथवा श्रवण करता यह सांसारिक बन्धनों से मुक्ति पा जाता है, इसमें कुछ संदेह नहीं करना चाहिए।
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