हवन सामग्री या समिधा | hawan samida

शांति कर्म हेतु दूध, घी, पीपल के पत्ते, सरसों, तिल, दूध वाले वृक्ष अमृता अर्थात् गिलोय नामक लता तथा खीर से हवन करना चाहिए। पुष्टि कर्मों में मूलतः चन्दन, बेलपत्र, घी तथा चमेली के फूल। कन्या प्राप्ति हेतु खीलों द्वारा, स्त्री प्राप्ति हेतु कमलों द्वारा, बन्धन-मुक्ति हेतु घी में डूबे हुए अन्न द्वारा, महादारिद्रय शान्ति के लिए दही तथा घृत से हवन करना चाहिए। घृत, बिल्ब तथा तिल द्वारा एक लाख आहुतियां देने से (प्रकारान्तर से महानिधि) प्राप्त होती है। आकर्षण में प्रियंमु बेलफल. चमेली के फूल, पलाश के फूल साथ ही सेंधानमक से हवन करना चाहिए। सफेद सरसों अथवा राई एवं लवण से पुष्टि कर्म में, चमेली के फूलों से वशीकरण में तथा कनेर के फूलों से आकर्षण में, उच्चाटन कर्म में कपास, नीम-फल एवं वांछित मनुष्य के केशों को मट्ठे में मिलाकर हवन करना चाहिए। मोहन-कर्म में कौए के पंखों से हवन करना चाहिए। मारण-कर्म में धतूरा बीज-फल एवं रक्त मिश्रित रक्त-विष से हवन करना चाहिए। शत्रु मारण की इच्छा से बकरी का दूध, घी, कपास के बीज, मनुष्य की हड्डी और मांस तथा अभीष्ट मनुष्य जिसे मारना हो उसके नाखून तथा रोमों को मिलाकर हवन करना चाहिए। अथवा सरसों के तेल द्वारा मारण कर्म में हवन करना चाहिए। इसी प्रकार उत्सादन कर्म में तिल, जौ (यव) तथा रोहितिक के बीजों से हवन करना सिद्धिदायक होता है।

अभिचार कर्म में कपास के बीज (बिनौला) सरसों तथा लवण से हवन करना चाहिए। मारण कर्म में कौवा, उल्लू तथा क्रूर-पक्षियों के पंख, कुचला, भिलावा सरसों का तेल, मिर्च, सरसों, तिक्य, आक-दूध, कटुत्रा अर्थात् सोंठ काली मिर्च, पीपल, कटुतैल तथा सेहुंड़ के दूध से हवन उपयुक्त है। आयु वृद्धि के लिए घृत, तिल, दूर्वा तथा आम के पत्तों से हवन करना चाहिए। ज्वर दूर होने के लिए आम के पत्ते ज्यादा उपयोगी हैं। मृत्यु जीतने तथा घोड़ा व हाथी शांत करने के लिए गिलोय से हवन करना चाहिए। सफेद सरसों के हवन से गायों की पीड़ा शीघ्र दूर हो जाती है। वर्षा की कामना हो तो वेत की समिधा तथा वेत पत्तों से हवन करना चाहिए। जीयापोता की समिधाओं से पुष्टि होती है। घृत तथा गुग्गल से हवन करने वाला वाक्पति होता है। पुत्राग, मल्तिका, जाती तथा नागकेसर के फूल एवं मूंग के द्वारा हवन करने से सरस्वती सिद्ध होती है। दूध तथा लवण से हवन करने से वर्षा रुक जाती है। पद्म-राग, सुवर्णा,

भद्रलोहिता, लोहिता, श्वेता, धूमनी तथा करालिका- ये सात नाम अग्नि की राजसी जिह्वाओं के हैं। काम्यकर्म में इनकी आवश्यकता होती है। विश्वमूर्ति, स्फुलिंगी, धूर्मवर्णा, मनोजवा, लोहिता, कराला तथा काली-ये सात नाम अग्नि की तामसी जिन्ह्वावों के हैं। इनकी मारण आदि क्रूर-कर्मों में आवश्यकता होती है। हिरण्या, गगना, रक्ता, कृष्णा, सुप्रभा, बहुरूपा तथा अविरिक्ता ये सात नाम अग्नि की सात्विकी उनके नाम के आधार पर जान लेना चाहिए। जिन्ह्वावों के हैं। योग कर्म में इनकी आवश्यकता होती है। इन सब जिन्ह्वावों का वर्ण

ईशान कोण में अग्नि की स्वर्णवर्ण ‘हिरण्या’ नामक जिन्ह्वा आकर्षण कर्म में आवश्यक होती है। पूर्व दिशा में नीलकान्त मणितुल्य आभा वाली वैदूर्या नामक अग्नि की जो जिन्ह्ववा है, स्तम्भन कर्मोपयोगी है। अग्निकोण में बाल सूर्य समान आभा वाली रक्ता नामक अग्नि जिन्ह्वा विद्वेषण कर्म में आवश्यक होती है। नैऋत्य कोण में नीलपद्म सी वर्ण वाली जिन्ह्वा ‘कृष्णा’ नामक अग्नि मारण कर्म में आवश्यक होती है। पश्चिम दिशा में लोहित वर्ण वाली ‘सुप्रभा’ नामक जिन्ह्वा शान्ति कर्म में उपयोगी है। में वायव्यकोण में स्वर्ण समान अविरिक्ता नामक जिन्ह्वा उच्चाटन कर्मोपयोगी है। मध्यकुण्ड बहुरूपा नामक जिन्ह्वा हवन करने से अर्थ-सिद्धि होती है। तन्त्रज्ञ विद्वानों ने इन जिन्ह्वाओं को विविध कर्मों में उपयोगी बताया है।

अब बलि के नामों को सुनो-पूर्णाहुति में अग्नि के ‘मूड’ नाम का उच्चारण करना चाहिए। इसी प्रकार शान्ति कर्म में ‘वरद्’, पुष्टिकर्म में ‘वलद्’, अभिचार में ‘क्रोध’, वशीकरण में ‘कामद्’, वरदान में ‘चूडक’, लक्ष संख्या वाले हवन में ‘हुताशन’ नाम का उच्चारण करते हुए हवन करना चाहिए। होमद्रव्य के अभाव में केवल घृत से हवन करना चाहिए। घृत भी न होने पर केवल जप करना चाहिए। मूल देवता का मंत्र जितनी संख्या में जपा जाए उसका दशांश अंग देवता का जाप हवन करना चाहिए। घृत से हवन करने में असमर्थ होने पर जप की संख्या दोगुनी कर देनी चाहिए। यदि किसी स्थान पर जप तथा होम की संख्या न दी गयी हो तो 8,000 जप तथा आठ हजार ही होम करना चाहिए। होम तथा बलि के अन्त में स्वाहा शब्द का उच्चारण अवश्य करना चाहिए। पूजन तथा नमस्कार के मन्त्र में नमः शब्द को जोड़ना चाहिए। तर्पण के समय अन्त में देवता का नाम लेकर ‘तर्पयामि’ कहना चाहिए। जिस जगह जप तथा हवन संख्या का निर्देश न हो वहां 1008 की संख्या में हवन तथा जाप करना चाहिए।

सुक्र तथा स्रुव-

साधकों को शास्त्रोक्त विधि अनुसार सुक्र 36 अंगुल तथा स्रुव 24 अंगुल का बनाना चाहिए। उनका मुख सात अंगुल तथा कण्ठ एक अंगुल और वेदी 8 अंगुल की होनी चाहिए। दण्ड की लम्बाई तथा विस्तार क्रमश: 20 तथा 6 अंगुल रखें। ‘सुक्र तथा स्रुव’ इन दोनों के कुण्डल का भाग चार अंगुल अथवा तीन अंगुल रखकर उसमें (चौकोर गड्ढा) करें। गर्त चार अंगुल तथा वृत्त को 3 अंगुल वर्तुलाकार रखें गर्त के बाहर दो अंगुल मेखला तथा उसके बाहर शोभा बनायें कुण्डमुख तथा कुण्ड का अग्र भाग वेदी का तीन गुना होना चाहिए। सुक्र तथा स्रुव में कनिष्ठा

होम की मुद्रा कोनसी होती है |

-बिना मुद्रा के हवन दी गयीअंगुली के अग्रभाग जितना ‘छिद्र’ बनाना चाहिए। शुक्र स्रुव स्वर्ण, चांदी रौप्य (चांदी) ताम्र (तांबा), लोहा अथवा काठ का बनाना चाहिए। क्षुद्र व (छोटे) कर्मों के लिए नागेन्द्र लता का सुक्र तथा स्रुव बनाना चाहिए।

 आहुति देवता ग्रहण नहीं करते, अतः मुद्रा के साथ ही हवन करना चाहिए। मुद्राहीन हवन कदापि न करें। जो दुर्बुद्धि मोहवश बिना किसी मुद्रा के हवन करता है। वह स्वयं को तथा यजमान को पतित करता है। हवन की मुद्रा तीन प्रकार की होती है-मृगी, हंसी और सूकरी। हाथ को सिकोड़ सभी उंगलियों को एक साथ मिलाने से सूकरी मुद्रा बनती हैं। कनिष्ठा को छोड़कर अन्य सभी उंगलियों को मिलाकर हंसी मुद्रा बनती है। कनिष्ठा तथा तर्जनी दो अंगुलियों से मृगी मुद्रा बनती है। अभिचारिक कर्मों द्वारा किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए मारण, उच्चाटन, ताड़न में सूकरी मुद्रा का उपयोग करना चाहिए। इसमें हंसी मुद्रा सर्वजन कल्याण तथा मृगी मुद्रा केवल स्वकल्याण के लिए उपयोग की जाती है। शान्ति कर्म में नम:, वशीकरण में स्वाहा तथा स्तम्भन में ‘वषट्’ विद्वेषण में’ वौषट्’ उच्चाटन में ‘हुं’ तथा मारण कर्म में ‘फट्’ शब्द को अन्त में जोड़कर हवन करना चाहिए।

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