Laxmi mata | लक्ष्मी-माताकी उत्पति उत्पति और निवास

लक्ष्मी माताकी उत्पति

लक्ष्मी माताकी उत्पति :- एक बार देवताओं ने अमृत प्राप्ति के लिए समुद्रमन्थन का विचार किया। समुद्रमन्थन के लिए देवगण अकेले तो सक्षम नहीं थे, अतः उन्होंने देत्यों को भी इस कार्य को करने के लिए आमन्त्रित कर अपने साथ ले लिया। फलतः देवता और दैत्यों दोनों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया।

समुद्र को मंथन करने के लिए मंदराचल पर्वत को मथानी तथा वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया। सर्प के फण की ओर दैत्य रहे और पूंछ वाले भाग की ओर देवता। जब मंदराचल पर्वत समुद्र में नीचे की ओर धंसने लगा, उस समय भवगवान विष्णु ने कच्छप अवतार लेकर उस पर्वत को अपनी पीठ पर रख लिया। फलस्वरूप अपने स्थान पर वह स्थिर रहा, उसका नीचे की ओर धंसना रूक गया। दीर्घकाल तक समुद्र मंथन करते रहने के बाद उसमें से सर्वप्रथम हलाहल नामक विष प्रकट हुआ। उस विष की तीव्र ज्वाला से जब तीनों लोक हाहाकार करने लगे, उस समय शिवजी ने उस विष को अपने कण्ठ में धारण कर लिया, इसके फलस्वरूप उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाये।

हलाहल विष के बाद समुद्र में से अनेक प्रकार के और भी रत्न प्रकट हुए। अमृत का प्राकट्य सबसे अन्त में हुआ। विष से आरम्भ करके अमृत पर्यन्त कुल १४ रत्न समुद्र में से निकाले थे- श्री रम्भा, विष पारुणि, अमृत, शंख, गजराज, धेनु, धनु, धन्वन्तरि, कल्पद्रुम, शाशि, मणि बाज। उनमें एक रत्न के रूप में मां लक्ष्मी श्री भी प्रकट हुईं।

विभिन्न रत्नों को देवता तथा दैत्यों ने परस्पर बांट लिया था। लक्ष्मी जी को श्री विष्णु ने अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया। तभी से लक्ष्मी विष्णुप्रिया, विष्णुपत्नी या विष्णु वल्लभा कही जाती हैं। समुद्र से उत्पन्न होने के कारण लक्ष्मीजी का नाम सिन्धुकन्या या सागरसुता भी है

laxmi mata-
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लक्ष्मी-माताजीका शरीर गौर वर्ण है। उनकी चार भुजाएं हैं। ये किरीट मुकुट तथा दिव्य वस्त्रलंकारों को धारण करती हैं। इन्हें धन-धान्य ऐश्वर्य एवं समृद्धि की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है। लक्ष्मीजी का वाहन उलूक पक्षी है। ये स्वभाव से परम चंचल है

“कमला स्थिर न रहिम कहि, यही जानत सबकोय।

पुरुष पुरातन की वधू , क्यों न चंचल होय॥

यह कभी भी एक स्थान पर स्थिर होकर नहीं रहती। परन्तु विष्णु पत्नी होने के कारण जहां भगवान श्री विष्णु की आराधना के साथ ही श्री लक्ष्मी जी की भी नियमित आराधना होती है वहां ये स्थिर रूप से निवास | करती है। __मुझे एक किस्सा याद आ रहा है। एक धनी मानी सम्मानित सेठ के यहां पीढ़ियों से लक्ष्मी का वास था। एक समय लक्ष्मी वहां लम्बे समय तक रहने के कारण उकता गई। बस फिर क्या था? स्वप्न में लक्ष्मी ने सेठ से| कहा- “सेठ! मैं यहां उकता गई हूं मैं अब तुम्हारे यहां से जाना चाहती हूं, | परन्तु लम्बे समय तक तुमने मेरी सेवा की है, अतः कोई वरदान मांगो।” | सेठ चतुर था उसने कहा- “मां मुझे एक दिन की मोहलत दो। अपने | परिवार से पूछकर वरदान मांगूगा।” लक्ष्मी ने कहा- “तथास्तु’ सेठ ने | दूसरे दिन अपने समस्त कुटुम्ब को एकत्र किया और लक्ष्मीजी का वचन सुना दिया। सभी किंकर्तव्यविमूढ़! खैर! सेठ के बड़े पुत्र ने कहा- मेरे लिए एक मिल और मांग लेना।’ पुत्रवधु ने एक नया बंगला चाहा, दूसरे ने एक विदेशी कार की मांग की तो किसी ने कुछ- सभी ने अपनी अपनी इच्छित वस्तु की मांग की अन्त में मात्र सबसे छोटी पुत्र वधू से पूछना रह गया। सेठ ने सोचा- यह अभी बच्ची है। महीने भर पूर्व ही तो इस घर । | आई है। इससे क्या पूछे? सब कुछ तो मांग चुके हैं।

फिर सोचा, इसे भी क्यों नाराज करें? अन्ततः पूछ बैठे। बहू बोली “पिताजी मैं क्या मांगू?, आप पिता-माता तीर्थरूप हैं। पति परमेश्वर रूप हैं ही। घर में सब कुछ है। हां एक बात अवश्य मां लक्ष्मी से मांगना की जो सुख-शान्ति इस घर में है, वही सदैव बनी रहे।”

| सेठ मुंह बिचकाकर रह गया। दूसरे दिन सेठ ने लक्ष्मी से सबकी इच्छा प्रकट कर दी और ऐसा ही होगा कहती रहीं। अन्त में जब छोटी बहू की बात कही तो लक्ष्मी सिर पकड़कर वहीं बैठ गई। ‘सेठ मैं इस बहू द्वारा छली गई। कारण कि जहां सुख-शान्ति हो वहां से लक्ष्मी जा नहीं सकती। बस, लक्ष्मी सेठ की होकर रह गई। गोस्वामीजी ने इसी प्रसंग से रामायण में लिखा है

जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।

जहाँकुमति तहँ विपति निदाना॥ (सुन्दरकांड, 38/6)

श्री लक्ष्मीजी का आसन कमल है, इसलिए उन्हें कमला या कमलासना भी कहा जाता है। यथार्थ में तो ये परब्रह्म प्रभु की आधी शक्ति है। उस आधी शक्ति ने ही समुद्र के गर्भ रूप में अवतरित होकर श्री भगवान विष्णु के वामांग में स्थान लिया। ये अपने पति भगवान विष्णु की निरन्तर सेवा करती रहती हैं। यही कारण हैं कि जो लोग विष्णु के भक्त हैं, उन्हें अनायास ही भगवती लक्ष्मी की कृपा भी प्राप्त होती है।

कार्तिक कृष्णा अमावस्या को दीपावली की रात्रि में भगवती महालक्ष्मी का पूजन विशेष रूप से किया जाता है। कहा जाता है कि इस तिथि को भगवती लक्ष्मी विशेष विश्व भ्रमण को निकलती हैं तथा जिस स्थान पर अपनी उपासना-आराधना होते हुए देखती हैं, वहीं अपना निवास बना लेती है।

इसलिए दीपावली की निशा में प्रत्येक वैष्णव को कम से कम एक बार लक्ष्मी सहस्रनाम पाठ अवश्य करना चाहिए। भगवती महालक्ष्मी की सहस्रनाम उपासना-आराधना द्वारा दुःख दारिद्रय से मुक्ति पाकर मनचाहा ऐश्वर्य प्राप्त किया जा सकता है।

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